Khushi Ram Arya 'Silpakaar' Uttarakhand

Khushi Ram Silpakaar Uttarakhand
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी , आर्य समाजी नेता एवं दलित योद्धा खुशीराम शिल्पकार :

कुमाऊं केसरी व उत्तराखंड अंबेदकर स्व. खुशीराम 'शिल्पकार' जी (जन्म : 14 दिसम्बर 1886 - स्वर्गवास : 5 मई 1971) ब्रिटिश शासित भारत के कुमाऊं (उत्तराखंड) क्षेत्र से एम.एल.ए. निर्वाचित थे। ये पं. जवाहर लाल नेहरू, महात्मा गांधी व लाला लाजपतराय जैसे तत्कालीन राष्ट्रीय नेताओं के अभिन्न मित्र थे। राष्ट्रीय कांग्रेस नेतृत्व ने इन्हें उत्तराखंड पहाड़वासियों को ब्रिटिश हुकूमत के विरूद्ध गोलबंद करने के लिए पहाड़ क्षेत्र में भेजा। जहां इन्होंने दलितों पिछडों में व्याप्त तमाम कुरीतियों के खिलाफ एक ऐतिहासिक मुहिम छेड़ी।

1886 में हल्द्वानी के निकटवर्ती गांव में जन्में खुशीराम ने जब 1894 में मिशन स्कूल हल्द्वानी में प्रवेश लिया तो उन्हें सवर्ण छात्रों द्वारा अपमानित किया गया या यूं कहना चाहिए कि एक विक्षिप्त सामाजिक व्यवस्था खुशीराम जी के अधिक अध्येता होने की संभावनाओं को लील गई। यहीं से वे कठोर वर्णव्यवस्था के विरोधी के रूप में उभर कर सामने आए।

सन् 1930 के दशकों में उत्तराखंड पहाड़वासी दलितों के साथ सवर्ण व दबंग राजपूताना मानसिकता के लोगों का व्यवहार घोर अमानवीय था दलितों को शिक्षा से वंचित तो रखा ही गया था साथ ही दलितों को सवर्ण लोग पानी भी दूर से डालकर देते थे। ऐसे तमाम विपरीत परिस्थितियों में खुशीराम जी ने बहुत तिरस्कृत संघर्षों के बीच पहाड़ी दलितों को राष्ट्र की मुख्य धारा के समक्ष स्थापित किया। दलितों के लिए शिल्पकार शब्द गढ़ने का श्रेय भी इन्हीं को जाता है। इतिहास में इन्हें कुमाऊं केसरी व उत्तराखंड अंबेदकर के नाम से भी जाना जाता है। डा. नवीन जोशी (अल्मोड़ा उत्तराखंड) ने कुछ अन्य इतिहासकारों के हवाले से एक स्वतंत्र लघुशोधपरक लेख " एक अनाम दलित योद्धा खुशीराम शिल्पकार जी" शीर्षक से वर्ष 2016 में सोशलमीडियाई मंचों पर जारी किया और इस आधार पर बहस तेज हुई कि आखिर एक ऐतिहासिक संघर्षकारी व्यक्तित्व को हासिए पर धकेले जाने की क्या मंशा हो सकती है जबकि इस दौर में ऐसे मानवतावादी जन नेताओं के इतिहास को जानने समझने की पहली जरूरत है। उन्होंने खुशीराम शिल्पकार जी का ऐतिहासिक संज्ञान लेते हुए जिक्र किया कि 1906 में दलितों को 'शिल्पकार' नाम देने का प्रयास उन्हीं का था और 1921 की जनगणना में दलितों के लिए 'शिल्पकार' शब्द के संबोधन के लिए न केवल मंजूरी मिली बल्कि इसे प्रशासनिक व अभिलेखीय तौर पर भी दर्ज किया गया। पं. गोविन्द बल्लभ पन्त और बद्रीदत्त पांडे ने उन्हें राष्ट्रीय राजनीति व तमाम जनांदोलनों में सक्रिय भागीदारी के लिए सहयोगी बनाया। आर्य समाजी नेता जयानंद भारती जहां उत्तराखंड के गढ़वाल क्षेत्र में दलितों को सामाजिक बराबरी देने के लिए उग्रतम आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे जिसमें उनका दलित दूल्हा - दुल्हनों के लिए "डोला पालकी" आंदोलन की सफलता प्रमुख थी से विजयोत्साहित आर्य समाजी नेताओं ने भी कुमाऊं क्षेत्र में शिल्पकारों के लिए सामाजिक बराबरी का आंदोलन तीव्रतम कर दिया। नवंबर1932 में 'अल्मोड़ा कूर्मांचल समाज' सम्मेलन आयोजित हुआ जिसमें 'अछूत कोई नहीं' के नारे लगे और सामाजिक बराबरी का हिमायती सवर्णों का एक बड़ा समूह गोविंद बल्लभ पंत जी के नेतृत्व में टम्टों (उत्तराखंड की एक दलित जाति या वर्ग) के नौले (बवाड़ी) में पानी पीने गया। तत्कालीन राजनीतिक चेतना के विस्तारगमन के अधिभूत अन्य दलित समाज सुधारक भी तेजी से उभर रहे थे जिसमें जयानंद भारती , बचीराम आर्य व बुद्धदेव आर्य प्रमुख थे। 1930 में खुशीराम के नेतृत्व में शिल्पकारों द्वारा जनेऊ धारण करने तथा 'आर्य' नाम स्वीकार करने का आंदोलन हुआ। देश के कद्दावर आर्य समाजी व कांग्रेसी नेताओं के नेतृत्व में जिनमें पंजाब केसरी लाला लाजपतराय , पं. गोविंद बल्लभ पंत, बद्री दत्त पाण्डेय, सांस्कृतिक कर्मी मोहन उप्रेती सहित दलित नेता जयानंद भारती भी मौजूद थे सुनकिया (मुक्तेश्वर) नैनीताल में दलितों के लिए जनेऊ धारण उपनयन का कार्यक्रम आयोजित किया गया जिसका नेतृत्व खुशीराम शिल्पकार कर रहे थे। इससे दलितों में तेजी से जन जागृति विकसित हुई।

सन 1933 में राष्ट्रवादी नेता खुशीराम द्वारा मजखाली अल्मोड़ा में एक सम्मेलन किया गया जिसमें शिल्पकारों के पक्ष में अनेक प्रस्ताव पारित किए गए । जनवरी 1941 में बागेश्वर उत्तरायणी मेले में शिल्पकार सम्मेलन हुआ, जिसमें नौकरी , सेना में भर्ती, जमीन के स्वामित्व, निःशुल्क शिक्षा तथा सामाजिक सुरक्षा की मांग की गई। सामाजिक व राजनीतिक सरोकारों पर अपनी बेबाक टिप्पणी के लिए पहचाने जाने वाले प्रगतिशील विचारक ए.के. ब्राइट (नैनीताल उत्तराखंड) ने स्व. खुशीराम शिल्पकार को सामाजिक व राजनीतिक बहसों के केन्द्र से दरकिनार रखने के लिए स्वतंत्र भारत की गंदलाई सामंतशाही राजनीति को जिम्मेदार ठहराया और इसे घोर अवसरवादी मानसिकता करार दिया। गोमती नगर, लखनऊ में आयोजित 'उत्तराखंड दलित शिल्पकार सभा' द्वारा स्व. खुशीराम जन्मोत्सव 14 दिसंबर 2018 के मौके पर आये बतौर अतिथि वक्ता श्री ब्राइट ने कहा कि "बहुत सारी चीजें हैं जिसमें पहला ये कि हमारे पास खुशीराम जी का तिलिस्मी वृतान्त के सिवा कुछ नहीं है, एक ऐसा वृतान्त जिसमें हम खुशीराम जी को सेंटाक्लाज वाली छवि में गढ़़ा पाते हैं। वो रात के सन्नाटे में दबे पांव दलितों के घरो में आते हैं पता नहीं कौन सी पुड़िया सुंघाते थे कि सब लोग अगली सुबह सारे दुखों कष्टों से निजात हासिल कर सवर्णों, ठाकुरों के लिए भी आंख तररने लग जाते थे। ऐसी कहानियां गढ़ने व ऐसी दलित जनश्रुतियों को संरक्षित करने वाली पीढियां और समाज निहायत ही जाहिल और असभ्यय होते हैंं..... हमें कम से कम अपने विवेक से उनके दुष्कर जनसंघर्षों की एक प्रेरणादायी छवि तो पेश करनी ही चाहिए।" डा. जोशी ने दलितों के बीच इस तिलिस्मी वृतान्त के खरपतवार को उखाड़ने का काम करते हुए खुशीराम जी के कठिन जनसंघर्षों को दिखाने की कोशिश की है। डा. नवीन जोशी आगे लिखते हैंं 'जिम्मेदार नौजवान पीढ़ी के पास जिज्ञासाओं और सबूतों की काफी रोशनी है अब इससे खुशीराम जी के बाकी संघर्षों व मुक्तिपरक उद्देश्यों को क्रमबद्ध व व्यवस्थित तरीके से समझा जाये...... किसी आदर्श संघर्षों वाले व्यक्ति को हम पत्र पत्रिकाओं व कागजी पुलिन्दों में बांधकर उसकी प्रासंगिकता को नहीं समझ सकते हैं जब तक कि समाज की मनःस्थिति अनुकूल न हो। हम नौजवानों और चिंतनशील मानवतावादी बुद्धिजीवियों से यह सवाल करते हैं कि एक राष्ट्रीय स्तर के आंदोलनकारी जिसने न केवल उत्तराखंड पहाड़ी दलितों को राष्ट्रवाद से परिचित कराया बल्कि उन्होंने पूरे पहाड़ क्षेत्र में जो आर्य समाजी सिद्धांतों को लागू करने पर जोर दिया उनको किस तरह संरक्षित किया जा रहा है...... आजादी के जिस दौर में जहां शिक्षित नौजवान, ब्रिटिश हुकूमत के विरुद्ध आर-पार की जंग लड़ने के लिए चरम मंत्रणाओं में व्यस्त था वहीं देश के तमाम पिछड़े व अशिक्षित इलाकों की तरह उत्तराखंड में घोर अमानवीय जातीय विषवमन पोषित हो रहा था। दलित समुदाय केवल सवर्णों, द्विजों, ठाकुरों के यहां उनके मवेशियों की परवरिश व खेतों में हल जुताई के काम में ही जुटा था। तब गांवों में सरपंचों व पधानों ( गांव का मुखिया) का ही सामंती वर्चस्व हुआ करता था। जो भी दलित, पधानों के फरमानों की अनदेखी करता था उन दलितों के साथ दासयुगीन गुलामों की तरह बरताव किया जाता था। ऐसी घोर विपरीत परिस्थितियों में स्व. खुशीराम जी ने जिस तरह सामाजिक न्याय के लिए तत्कालीन सवर्ण समाज से लोहा लिया और अपने संघर्षों को जीत दिलाई उस हिसाब से निश्चित तौर पर आप खुशीराम जी को उत्तराखंड का बिरसामुंडा या उत्तराखंड का अंबेदकर कहते हैं तो यह बिल्कुल भी अतिशयोक्ति नहीं है।'

स्वाधीनता संग्राम सेनानी और प्रखर समाज सुधारक खुशीराम जी 1946 से 1967 तक उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे। बाद में उनके पुत्र इन्द्रलाल, हल्द्वानी विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे। अपने सामाजिक व राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उन्होंने उत्तराखंड के लगभग हर गांव क्षेत्र का भ्रमण किया तब पहाडों में यातायात के साधन कुछ भी नहीं थे सामान ढुलाई के लिए इक्के दुक्के लोग घोड़े पाले हुए थे। ऐसे विषम हालातों में खुशीराम जी ने अल्मोड़ा, सल्ट, मानीला, लोहाघाट, चम्पावत, नैनीताल, ओखलकांडा, ल्वाड़ डोबा, डांडा, अमझड़ इत्यादि क्षेत्रों सहित कुछ सुदूरवर्ती गढ़वाल क्षेत्रों का भी दौरा किया।

उन्होंने पहाड़ी क्षेत्रों में तमाम आर्य समाजी सिद्धातों की स्थापना केन्द्र बनाने में अग्रणी भूमिका निभाई। हल्द्वानी, भवाली, नैनीताल, अल्मोड़ा, लोहाघाट क्षेत्रों में आज भी आर्य समाजी धर्मशालाओं की इमारतें देखी जा सकती हैं जो बदलते सामाजिक मूल्यों के दौर में अब लगभग खत्म होने के कगार पर खड़े हैं। इसी तरह के तमाम जन कल्याणकारी संघर्षों में चलते थकते हांफते यह महामानव 5 मई 1971 को हमेशा हमेशा के लिए इस पृथ्वी से चल बसा और पीछे कुछ था तो केवल अनगिनत संघर्षों की दास्तान और अधूरे उद्देश्यों का एक डरावना बियाबान अंधेरा। अज्ञानता, अंधविश्वास, अशिक्षा के विरूद्ध जब भी महामानवों का डटकर खड़ा होकर मुकाबला करने की बात होगी तब तब खुशीराम 'शिल्पकार' जी ऐसे महामानवों में पहली पांतों के इतिहास पुरुषों की श्रेणी में खड़े पाये जायेंगे।
                        डी. के. चनियाल
                पर्वतीय हस्तशिल्प संरक्षण संगठन 
                         धूरा, चम्पावत




3 टिप्‍पणियां:

  1. Great leadership of Uttrakhand who fought for uplifting of SC community in Uttrakhand . My great salute. My father Late Joga Ram Arya was worked with him for this noble job in his young age. Many times Late Khushi Ram ji used to stay in our house at Motiyapathar during his social movements.He has named my father as “Hanuman” for body strength, loyalty and walking speed. Pay my respect and homage to both great leaderships.

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  2. धन्यवाद, राजेन्द्र प्रसाद जी!

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